Thursday, September 5, 2019

“इतिहास घायल है” [तेवरी-संग्रह] से ‘रमेशराज’ की तेवरियाँ


“इतिहास घायल है” [तेवरी-संग्रह] से ‘रमेशराज’ की तेवरियाँ
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+रमेशराज

जन्म 15 मार्च, 1954, अलीगढ़

शिक्षा-स्नातकोत्तर-हिंदी एवं भूगोल

लेखन-कविताएं कहानियां, लघुकथा, लेख व्यंग्य आदि।

सम्प्रति-व्यवसाय

सम्पर्क-15@109, ईसा नगर, अलीगढ़

;एक
किस तरह से आदमी का घाव भरा तूने।
रोज खड़ा कर दिया एक भिन्डरा तूने।।

मेघ बनकर चन्द बूंदें खेत को देकर।
भर लिया गोदाम में सब बाजरा तूने।।

होते-गये, होते-गये इस देश के टुकड़े।
आग वो हरदम लगायी मन्थरा तूने।।

यह नशे का भूत तुझ पर चढ़ गया कैसा?
आदमी के रक्त से खींची सुरा तूने।।

तू भी घण्टों सोचती रोगी के हाल पर।
देश का देखा जो होता एक्सरा तूने।।
+रमेशराज


;दो
खाओ-खाओ कसमें खाओ राजघाट पर।
कर में गीता-वेद उठाओ राजघाट पर।।

तुम गांधी के अनुयायी हो, तुमको हक है।
चाहे जो दुष्चक्र चलाओ राजघाट पर।।

जनता के भूखे पेटों की आस रोंद कर।
खुशहाली का ढोंग रचाओ राजघाट पर।।

लोकतंत्र की अर्थी को लादे काँधों पर।
अब जनहित का बिगुल बजाओ राजघाट पर।।

जिससे जनता के सोचों पर जंग लगी है।
उसी अहिंसा को दुहराओ राजघाट पर।।
+रमेशराज


;तीन
इस बस्ती में प्यार के सम्बोधन मत खोज।
निष्छल, भावुकता-भरे अब तू मन मत खोज।

जिनके चेहरे पर रहे कई मुखौटे मित्र।
उनकी खातिर तू कोई अब दर्पन मत खोज।।

तहखाने हो जायेंगे तेरे सभी प्रयास।
तहखानों के बीच में तू आंगन मत खोज।।

रातों का तू स्वप्न में चिल्लायेगा साँप।
लोगों के व्यक्तित्व में चन्दन-वन मत खोज।।

दूर-दूर तक है यहाँ केवल तपता रेत।
इस मरुथल के बीच में तू सावन मत खोज।।
+रमेशराज




;चारद्ध
इस मौसम में तो प्रभात के रंग खतरे में हैं।
चन्दा-तारों भरी रात के रंग खतरे में हैं।

होती हैं जितनी वसंत की अब तो चर्चाएं।
उतने डाली पात-पात के रंग खतरे में हैं।।

आज मना लो खुशियों का उत्सव चाहे जितना।
कल सोचोगे गात-गात के रंग खतरे में हैं।।

केवल अफवाहों में जीता है मानव यारो।
यानी अब तो सही बात के रंग खतरे में हैं।।
+रमेशराज




;पाँच
जब कोई थैली पाते हैं जनसेवक जी।
कितने गद्गद् हो जाते हैं जनसेवक जी।

‘’भारत में जन-जन को हिन्दी अपनानी है’’।
अंग्रेजी में समझाते हैं जनसेवक जी।।

रोटी भी है चीज कहीं खाने की भाई।
अब तो बस रिश्वत खाते हैं जनसेवक जी।।

सपनों में भी ये आलम है,-क्या हम बोलें।
कुर्सी-कुर्सी चिल्लाते हैं जनसेवक जी।।
+रमेशराज





;छः
शब्दों में बारूद उगाना सीख लिया।
कविता को हथियार बनाना सीख लिया।।

रहा नहीं है हमें भरोसा माझी पर।
हमने खुद ही नाव बचाना सीख लिया।।

आँख-आँख में जहाँ भूख के सपने हैं।
उन गलियों में आना-जाना सीख लिया।।

जिन के पर काटे हैं इन सैयादों ने।
उन चिडि़यों को आज उड़ाना सीख लिया।।

आप गालियाँ ही हमको बेशक दे लें।
हमने तो आक्रोश दिखाना सीख लिया।।
+रमेशराज


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