तेवरी-संग्रह-“कबीर ज़िन्दा है” से ‘योगेन्द्र
शर्मा’ की तेवरियाँ
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एक
लोग हैवान हुए दंगों में
हिन्दू-मुसलमान हुए दंगों में।
धर्म चाकू-सा पड़ा लोगों पर
कत्ल इन्सान हुए दंगों में।
कोठी बंगले सफेदपोशों के
भेडि़या-धंसान हुए दंगों में।
गुंडे मूँछ तान चले सड़कों पर
ऐसे अभय-दान हुए दंगों में।
देख लो यारो मन्दिर-मस्जिद
बारूदी-खान हुए दंगों में।
*योगेन्द्र शर्मा
दो
जिंदगी भर जहर पिया हमने
पल-पल दर्द को जिया हमने।
जिनके चेहरों पे मुखौटे थे कई
कह दिया उनको शुक्रिया हमने।
गीत जिसमें न आग हो, न लपट
माना हर वक्त मर्सिया हमने।
खैर चिडि़यों की मना, जंगल में
अभी देखा है बहेलिया हमने।
बात जब क्रान्ति की उठी जो कहीं
बढ़ के अंगारा छू लिया हमने।
*योगेन्द्र शर्मा
तीन
लूटता साहूकार, क्या कहिए?
उसके खातों की मार, क्या कहिए?
हर तरफ तो गुलों के मेले हैं
और खुशबू फरार, क्या कहिए?
काठ के घोड़े थे, खिलोने थे
क्यूं हुए हम सवार? क्या कहिए?
होता अक्सर जीतना निश्चित
जिन्दगी जाती हार, क्या कहिए?
गूँगे-बहरों का ये मौहल्ला है
दिल में बातें हजार, क्या कहिए?
*योगेन्द्र शर्मा
चार
खींचता हर शख्स की अब खाल दातादीन
कर रहा हर जिंदगी मुहाल दातादीन।
लोग जीते हैं किसी तालाब की मछली हुए
रह रहा बन कर वहां घडि़याल दातादीन।
एक चिडि़या भी कभी बचकर निकल सकती नहीं
फैंकता है इस तरह के जाल दातादीन।
गांव है निर्धन, गरीबी भूख है चारों तरफ
बस अकेला खूब मालामाल दातादीन।
व्यर्थ होरी आस तू इससे लगाकर जी रहा
दे नहीं सकता ये रोटी-दाल दातादीन।
*योगेन्द्र शर्मा
पांच
हो गयी शाम से सहर यारो!
खत्म होता नहीं सफर यारो!
आज तक इसलिये ही जिंदा हैं
रोज पीते हैं हम जहर यारो!
लोग आंखें ही बंद कर बैठे
अंधेरा भाया इस कदर यारो!
यहां हर शख्स है किले की तरह
पत्थरों का है ये शहर यारो!
दर्द सोचूं हूं आग हो जाए
सीना अपना है जख्मे-तर यारो!
*योगेन्द्र शर्मा
छः
जिंदगी बन गयी चुभन
रेत पर लिखा हुआ कथन।
लक्ष्य जाने खो गये कहाँ?
पांव को सालती थकन।
पिन सरीखा हो गया अस्तित्व
आदमी है गोया पिनकुशन।
होंठ पर है परकटी मुस्कान
अश्रुमय मिलते यहां नयन।
हर किसी में झूठ छल फरेब
आदमी का देखिए चलन।
*योगेन्द्र शर्मा
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